लोकसभा चुनाव से एक साल पहले विपक्ष को बड़ा झटका लगा है। तीन नामी विपक्षी पार्टियों से राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी का दर्जा छीन लिया गया है। चुनाव आयोग ने फ़ैसला किया है जिसके अनुसार तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) अब क्षेत्रीय पार्टी गिनी जाएँगी। चुनाव आयोग ने दूसरा बड़ा बदलाव जो किया है वो यह कि आप पार्टी राष्ट्रीय पार्टी बन गई है।
अब चुनाव आयोग के इस निर्णय को राजनीतिक रंग देने की कोशिश की जा सकती है और कहा जा सकता है कि गुजरात चुनाव में कांग्रेस का लगभग सूपड़ा साफ़ करवाने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से काम आने वाली आप पार्टी को फ़ायदा दिया गया है और तीन विरोधियों को धराशायी करने के लिए इस आशय का निर्णय लिया गया है, लेकिन नियमानुसार और तकनीकी रूप से यह फ़ैसला एकदम सही है।
सही इसलिए कि किसी भी राजनीतिक पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा पाने के लिए तीन में से कोई एक शर्त पूरी करनी होती है। पहली शर्त ये कि उस पार्टी को कम से कम चार राज्यों के लोकसभा या विधानसभा चुनावों में कम से कम छह प्रतिशत वोट हासिल करना चाहिए। यह शर्त पूरी न करे तो लोकसभा की कुल सीटों की दो प्रतिशत सीटें तीन राज्यों में हासिल करे। यह शर्त भी पूरी न हो तो कम से कम चार राज्यों में उस पार्टी को क्षेत्रीय दल का दर्जा प्राप्त हो।
एनसीपी, टीएमसी और सीपीआई अब इन तीनों में से कोई शर्त पूरी नहीं करतीं। जबकि आप पार्टी ने पहली शर्त पूरी कर ली है। उसने चार राज्यों में छह प्रतिशत से ज़्यादा वोट हासिल कर लिए हैं। ये चार राज्य हैं- दिल्ली, पंजाब, गोवा और गुजरात। पंजाब और दिल्ली में तो आप की सरकार ही है। गोवा में उसने छह प्रतिशत से ज़्यादा वोट हासिल कर लिए थे और गुजरात में उसे तेरह प्रतिशत वोट मिल गए। इसलिए वह अब राष्ट्रीय पार्टी हो गई है।
ऐसे में यूपी में निकाय चुनाव के पहले सपा RLD को बड़ा झटका लगा है। चुनाव आयोग की तरफ से RLD का क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा समाप्त कर दिया गया है।
अब सवाल उठाता है कि गुजरात चुनाव के बाद ही आप पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिया जा सकता था लेकिन नहीं दिया गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र भाजपा और आप पार्टी में कोई गुप्त समझौता हो गया हो! आशंका कोई भी हो, सही भी हो सकती है और ग़लत भी, लेकिन प्रमाण के बिना कुछ नहीं कहा जा सकता। क्यूंकि राजनीति में कुछ भी संभव हो सकता है, यह सही है लेकिन प्रत्यक्ष को भले ही प्रमाण की ज़रूरत न हो, परोक्ष को तो हर हाल में प्रमाण ही चाहिए।